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तीन दशकों से बीजेपी का गढ़ बना हुआ है मुरैना

BJP

– साल 1991 से संसदीय सीट पर जीत को तरस रही कांग्रेस

– विधानसभा चुनाव में होता है त्रिकोणीय मुकाबला

मध्यप्रदेश का मुरैना जिला राजनीतिक लिहाज से वर्चस्व वाला जिला है. इस जिले में जातीय समीकरण जीत-हार का फैसला करते हैं. हालांकि संसदीय चुनाव के मामले में मुरैना लोकसभा सीट साल 1996 से बीजेपी का गढ़ बनी हुई है, जबकि 1991 के बाद से कांग्रेस यहां जीत का स्वाद नहीं चख सकी है. हालांकि विधानसभा चुनावों में यहां त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है. 

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में 230 विधानसभा सीटें हैं, ज्यादातर सीटों पर बीजेपी-कांग्रेस के बीच आमने सामने का ही मुकाबला होता है. एसी कम ही सीटें हैं, जहां त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है, उनमें से प्रदेश का मुरैना जिला प्रमुख है. विधानसभा चुनाव के मामले में मुरैना जिले में बीजेपी-कांग्रेस और बसपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता रहा है. कई बार इस जिले से बसपा और सपा उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. गत 2023 के विधानसभा चुनाव में भी यहां त्रिकोणीय मुकाबले के बीच 3 सीटें बीजेपी तो 3 सीटें कांग्रेस के खाते में गई है. इनमें से मुरैना से कांग्रेस के दिनेश गुर्जर, सबलगढ़ से भाजपा की सरला रावत, जौरा से कांग्रेस के पंकज उपाध्याय, सुमावली से भाजपा के एदल सिंह कंसाना, दिमनी से भाजपा के नरेन्द्र सिंह तोमर और अम्बाह से कांग्रेस के देवेंद्र रामनारायण ने जीत दर्ज की थी. 

छह विधानसभा सीटों में बटा है मुरैना

मुरैना जिले में छह विधानसभा सीटे हैं, जिनमें जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह और सबलगढ़ विधानसभा शामिल हैं. लोकसभा सीट पर भले ही यह भाजपा का गढ़ माना जाता हो, लेकिन विधानसभा क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जिले की सभी छह विधानसभा सीटों पर जातीय समीकरण है. मुरैना में जातीय समीकरण की बात करें तो यहां बघेल, गुर्जर, राजपूत और दलित समुदाय (खासकर जाटव) समाज को विशेष निर्णायक वोटबैंक माना जाता है. जिले की सभी अलग-अलग विधानसभा सीटों पर अलग-अलग जाति का दबदबा रहता है, जो निर्णायक माना जाता है। 

यह रहा संसदीय सीट का इतिहास

मुरैना लोकसभा सीट 1952 में अस्तित्व में आई थी. 1952-57 में कांग्रेस से राधा चरण शर्मा इस सीट से सांसद रहे, जबकि 1962 में कांग्रेस से सूरज प्रसाद, 1967 में निर्दलीय आत्मादास रहे. 1971 में मुरैना संसदीय सीट पर भारतीय जनसंघ का उदय हुआ और हुकूम चंद्र कछवाई सांसद बने, 1977 में जनता पार्टी से छविराम अग्रवाल, 1980 में कांग्रेस (आई) से बाबूलाल सोलंकी, 1984 में कांग्रेस से कम्मोदीलाल जाटव, 1989 में भजापा से छविराम अग्रवाल, 1991 में कांग्रेस से बारेलाल जाटव, जबकि साल 1996 से यह सीट भाजपा गढ़ गई. 1996 से 2004 तक अशोक अर्गल सांसद चुने गए, 2009 में बीजेपी से नरेन्द्र सिंह तोमर, 2014 में अटल बिहार वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा, 2019 में नरेन्द्र सिंह तोमर और वर्तमान में शिवमंगल सिंह तोमर यहां से बीजेपी सांसद हैं. 

संसदीय सीट पर 3 दशक से भाजपा का गढ़

मुरैना सीट पर पहली बाहर 1952 में चुनाव हुए थे, शुरुआत में यहां कांग्रेस का दबदबा रहा. पहले ही चुनाव में कांग्रेस के राधाचरण शर्मा ने यहां से जीत हासिल की थी. हालांकि साल 1971 से यह सीट पर जनसंघ/भाजपा का उदय हो गया था. बीते 3 दशक से मुरैना संसदीय सीट बीजेपी का गढ़ बन गई है. साल 1996 से 2009 तक यहां से बीजेपी से अशोक अर्गल सांसद चुने गए, जबकि 2024 के लोकसभा चुनाव में शिवमंगल सिंह तोमर बीजेपी से यहां चुनाव जीते, वह 5 लाख 15 हजार 477 वोटें से जीते, उन्होंने निकटतम प्रतिद्वंदी कांग्रेस के सत्यपाल सिंह सिकरवार को हराया, जबकि बसपा यहां तीसरे स्थान पर रही. 

केन्द्र व राज्य को दिए अनेक मंत्री

मुरैना जिले से अनेक प्रभावी नेता आते हैं. मुरैना की जनता ने यहां के जनप्रतिनिधियों को केन्द्र व राज्य सरकार में शामिल होने का मौका दिया है. प्रमुख नेताओं की बात करें तो वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर मुरैना से सांसद रह चुके हैं, जबकि वह केन्द्र में कृषि मंत्री का दायित्व भी संभाल चुके हैं. इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा मुरैना से सांसद व विधायक रह चुके हैं. वह प्रदेश सरकार में मंत्री पद संभाल चुके हैं. इसी तरह रामनिवास रावत मुरैना की राजनीति में प्रमुख कांग्रेस नेता रहे, हालांकि वर्तमान में वह भाजपा में हैं. बीते दिनों हुए उपचुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. डॉ. गोविंद सिंह कांग्रेस से बड़े नेता है, वह विधानसभा में नेताप्रतिपक्ष रह चुके हैं. रघुराज कंसाना भी बीजेपी से विधायक रह चुके हैं.

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