त्रेतायुग और द्वापर युग के इतिहास से जुड़ा है अशोकनगर

– माता सीता ने अशोकनगर की धरती पर ही काटा था वनवास – भगवान श्री कृष्ण के प्रतिद्वंदी शिशुपाल के अधीन थी अशोकनगर की धरती – सम्राट अशोक के नाम पर रखा गया नाम अशोकनगर मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित अशोकनगर जिला समृद्ध और खुशहाल जिला है. 15 अगस्त 2003 को यह जिला गुना से अलग हटकर स्वतंत्र रूप से अपने अस्तित्व में आया है. इतिहास के मुताबिक अशोनगर जिले का संबंध द्वापर युग और त्रेता युग से रहा है. इतिहास के अनुसार महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण के प्रतिद्वंदी शिशुपाल चेदि राज्य का हिस्सा अशोनगर रहा है, इसे जनपद काल में चेदि जनपद के नाम से भी जाना जाता है. जबकि मान्यता है कि रामायण काल (त्रेता युग) में माता सीता ने अशोकनगर की धरती पर ही वनवास काटा था. अशोकनगर में माता सीता करीला धाम मंदिर भी है, जहां प्रतिवर्ष होली की रंगपचंमी पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें प्रदेश सहित देश भर से श्रद्धालु अपनी कामना लेकर आते हैं. इतिहास के अनुसार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में अशोकनगर की धरती अवंती, दर्शाण और चेदि जनपदों के अधीन आती है. जबकि बाद में नंद, मौर्य, शुंग और मगद राजाओं ने भी यहां शासन किया है. गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार राजवंश, मुगल काल, मराठा और सिंधिया शासकों का भी यहां शासन रहा है. इतिहासकारों के अनुसार मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद गुप्त और मौखरी शासकों ने यहां राज किया, जबकि 8वीं-9वीं शताब्दी में यहां की धरती पर हर्षवर्धन के अधीन थी. 8वीं-9वीं सदी में ही यहां की धरती प्रतिहार राजवंश के कब्जे में आ गई थी. प्रतिहार राजवंश के वंशज कीर्तिपाल ने 10वीं-11वीं शताब्दी ई. में चंदेरी शहर की स्थापना की थी. जबकि प्रतिहारों के पतन के बाद 11वीं शताब्दी में यहां मुगल शासक महमूद गजनवी ने आक्रमण कर दिया था, जिसके बाद यहां तुर्क, अफगान और मुगल शासकों ने शासन किया. मराठा और सिंधिया शासकों ने भी इस धरती पर राज किया है. सम्राट अशोक के नाम पर रखा नाम इतिहासकारों के नाम पर अशोकनगर का नाम सम्राट अशोक के नाम पर रखा गया है. ऐसा कहा जाता है कि सम्राट अशोक उज्जैन को जीतने के बाद लौटते समय एक रात के लिए इसी क्षेत्र में रुके थे और विश्राम किया था, तभी से इस क्षेत्र का नाम अशोकनगर पड़ा. हालांकि इससे पहले यह क्षेत्र पछार के नाम से जाना जाता था. आज भी मौजूद हैं पुराने प्रमाण अशोकनगर जिले में आज भी राजा महाराज काल के प्रमाण आज भी मौजूद हैं. अशोकनगर से 60 किलोमीटर की दूरी पर ऐतिहासिक शहर चंदेरी है. चंदेरी शहर का प्राचीन नाम चंदगिरी था. यह शहर अपनी साडिय़ों के लिए पूरे देश में जाना जाता है. चंदेरी शहर में चंदेरी का किला, कौशक महल, बैजू बावरा की समाधि और काले सैयद का मकबरा है, जो उस समय की यादों को ताजा करता है. इन ऐतिहासिक स्थलों को देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में यहां पर्यटक पहुंचते हैं. इसी तरह मां जानकी मंदिर, वाल्मीकि आश्रम, प्राचीन सीतामढ़ मंदिर मौजूद हैं. इसी तरह अशोकनगर के पास ही ऐतिहासिक प्राचीन गांव तूमैन है. इस गांव में आज भी गुप्त संवद 116 (435 ई.) का महत्वपूर्ण शिलालेख मिला है, जो कुमार गुप्त के समय का है. माता सीता ने काटा था वनवास मान्यता है कि रामायण काल में माता सीता ने अशोनगर में ही अपने पुत्र लव और कुश के साथ वनवास काटा था. अशोकनगर जिले में ही प्राचीन मां जानकी मंदिर है. मान्यता है कि यहां वाल्मीकि आश्रम भी था. किवदंती है कि सीतामढ़ी मंदिर क्षेत्र में माता सीता यहां ठहरी थी, यही उन्होंने वनवास काल काटा था, यहीं वह अपने दोनों पुत्र लव और कुश के साथ रहती थी, यही रसोई बनाती थी, इसलिए इसे सीता रसोई से भी जोड़ा जाता है. हर साल होली पर्व की रंगपंचमी के दिन यहां विशाल मेले का आयोजन होता है. इस मेले में प्रदेश सहित देश भर से श्रद्धालु अपनी मन्नतों को लेकर पहुंचते ेहैं. जिले की वर्तमान स्थित अशोकनगर जिले का गठन 15 अगस्त 2003 को हुआ है. गुना जिले से अलग कर यह स्वतंत्र जिले के रूप में अस्तित्व में आया है. अशोकनगर जिले में 328 ग्राम पंचायते हैं, जबकि 328 गांव, 6 नगरीय निकाय और 8 तहसील हैं. अशोकनगर जिले में 9 शासकीय कॉलेज, 11 डॉकघर, 25 बेंक, 17 सरकारी अस्पताल, 22 विद्युत वितरण कंपनी के दफ्तर और 15 सरकारी विद्यालय हैं.
भिंड जिले ने सात्यि-कला और खेलों में दिया विशेष योगदान

– आज भी गूंजती है लोककवि घाघ की कविताएं मध्यप्रदेश के समृद्ध जिलों में भिंड जिला शुमार हैं. यहां से राजनीति में एक से बढक़र एक हस्ती निकली तो साहित्य, कलां और खेलों में भी इस जिले का विशेष योगदान रहता है. साहित्य के क्षेत्र में दो बड़े नाम लोककवि घा और रामनाथ सिंह परिहार किसी पहचान के मोहताज नहीं है. आज भी उनकी कविताएं भिंड में आयोजित होने वाले साहित्यक मंचों पर गुनगुनाई जाती है. इसी तरह खेल में भी भिंड जिले का विशेष योगदान रहता है. भारत की सेना के मामले में तो भिंड की धरती को सैनिकों की धरती कहा जाता है. भिंड के लगभग सभी गांवों से कोई न कोई युवा सेना में शामिल हैं. आज भी युवा सेना में जाने के लिए ललायित हैं और सुबह से लेकर देर शाम तक सेना में जाने की तैयारियों में जुटे नजर आते हैं. साहित्य के क्षेत्र में योगदान भिंड जिले ने साहित्य के क्षेत्र में भी बड़ा योगदान दिया है. लोककवि घाघ (घाघ भड्डरी) साहित्य में बड़ा नाम है. इनके जन्म को लेकर मतभेद है, कुछ विद्वान उनके जन्म स्थान को उत्तर प्रदेश के कन्नौज या कानपुर का बताते हैं. जबकि कई विद्वान उनकी जन्म स्थली भिंड की धरती को मानते हैं. इतिहासकारों के अनुसार लोककवि घाघ 16वीं-17वीं शताब्दी के कवि बताए जाते हैं, जो कृषि और मौसम संबंधी कहावतों के प्रसिद्ध हैं. इसी तरह रामनाथ सिंह परिहार भी साहित्य में बड़ा नाम बताया जाता है. साहित्यकार रामनाथ सिंह परिहार (उपनाम रसिक) ने बुदंली और हिंदी साहित्य दोनों में ही अपना प्रमुख योगदान दिया है. लोककलाएं-रंगमंच आज भी चलन में भिंड जिले में लोककलां व रंगमंच आज भी प्रचलित हैं. यहां लोकगीत, फाग, राई, स्वांग जैसी कला विधाएं प्रचलित हैं. होली के अवसर पर फाग गायन का विशेष महत्व होता है. धार्मिक आयोजनों के दौरान कीर्तन व भजन मंडली खासी सक्रिय रहती है. सैनिकों की धरती कहलाता भिंड भिंड की धरती सैनिकों की धरती कहलाती है. दरअसल, भिंड जिले से बड़ी संख्या में युवा भारत की सेना में शामिल हैं. यहां के युवाओं ने कारगिल युद्ध सहित पाकिस्तान-चीन से हुए युद्ध में अपनी महती भूमिका निभाते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया है. यहां के युवाओं की शहाद को भिंड की धरती आज भी नमन करती है. अब भी यहां के युवाओं में सेना में जाने के लिए खासा जोश नजर आता है. सेना में भर्ती के लिए युवा सुबह और शाम के समय तैयारियों में जुटे नजर आते हैं. खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही प्रतिभाएं खेल (स्पोर्टस) में भिंड जिले का विशेष योगदान तो नहीं रहा, लेकिन वर्तमान में कई प्रतिभाएं अपनी कौशल की दम पर उभरती नजर आ रही है. युवा क्रिकेटर विष्णु भारद्वाज को बीसीसीआई द्वारा प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एमए चिंदबरम अवार्ड से सम्मानित किया है, जिसमें विष्णु भरद्वाज ने 2023-24 में अंडर-19 कूच बिहार में बिहार ट्रॉफी के सात मैचों से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का 38 विकेट लेकर रिकार्ड बनाया था. इसी तरह भिंड के मेहगांव क्षेत्र के अडोखर गांव के सुमित कुशवाह का सिलेक्शन भी हाल ही में मध्यप्रदेश रणजी ट्रॉफी में हुआ है. खेल कौशल ें युवतियां भी अपना लोहा मनवा रही हैं. पूजा ओझा ने पैरालिंपिक खेलों में अपनी जगह स्थापित की है. उन्होंने कायकिंग और केनोइंग जैसे खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है. पूजा का यन पेरिस पैरालंपिक खेल 2024 के लिए हुआ था. पूजा ने चीन में आयोजित पैरा एशियन केनो क्वालिफायर चैंपियनशिप में दो स्वर्ण पदक हासिल किए थे. इसी तरह अंजलि शिवहरे ने रोइंग में नेशनल मेडल जीता है. यह खेल खतरनाक खेलों में शुमार है.
प्रदेश का भिंड जिला एकमात्र ऐसा जिला, जहां बीजेपी-कांग्रेस के साथ सपा-बसपा का भी वजूद

– संसदीय सीट भाजपा का गढ़, लेकिन विधानसभा चुनावों में होता है चतुर्थकोणीय मुकाबला – भिंड जिले ने प्रदेश की राजनीति को दिए एक से बढक़र एक प्रभावी नेता मध्यप्रदेश में 55 जिले हैं, जबकि 230 विधानसभा सीटे हैं. ज्यादातर जिले व विधानसभा सीटों पर बीजेपी-कांग्रेस के बीच ही आमने सामने की टक्कर देखने को मिलती है, लेकिन प्रदेश का भिंड जिला ही एकमात्र ऐसा जिला है, जहां विधानसभा चुनाव में चतुर्थकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है. भिंड जिले में राजनीतिक दल बीजेपी-कांग्रेस जितने प्रभावी है, उतने ही बहुजन समाज पार्टी और समाज वादी पार्टी भी प्रभावी है. यहां होने वाले विधानसभा चुनावों में यह कहना मुश्किल होता है कि कौन जीतेगा-कौन हारेगा. बता दें संसदीय सीट के मामले में भिंड की 5 विधानसभा और दतिया की तीन विधानसभा मिलाकर संसदीय सीट है. संसदीय सीट में बीते लंबे अर्से से बीजेपी भारी है, लेकिन भिंड की पांच विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनावों में चतुर्थकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है. भिंड जिले की विधानसभा सीटों से बीजेपी-कांग्रेस के साथ ही बसपा-सपा भी प्रभावी है. सबसे खास बात यह है कि भिंड जिले में जातीय समीकरण बहुत तेजी से हावी है. जातियों के आधार पर ही यहां राजनीति तय होती है. यहां अनुसूचित जाति, ठाकुर/क्षत्रिय(राजपूत/भदौरिया) ओबीसी (यादव, कुशवाह, कुर्मी, लोधी), ब्राह्मण, जैन, मुस्लिम समाज प्रभावी जातियां हैं, जो राजनीति को दिशा और दशा बदलने में सक्षम है. संसदीय सीट में समाहित है 8 विधानसभा भिंड लोकसभा सीट में 8 विधानसभा सीट समाहित हैं, जिनमें 5 सीटेें भिंड की, जबकि 3 सीटें दतिया की शामिल हैं. इन आठ विधानसभाओं में 4 पर भाजपा काबिज है, जबकि 4 विधानभाओं में कांग्रेस का कब्जा है. भिंड की अटेर विधानसभा से कांग्रेस के हेमंत सत्यदेव कटारे विधायक हैं, इसी तरह भिंड से भाजपा के नरेन्द्र कुशवाह, लहार में भाजपा के अंबरीश शर्मा, मेहगांव से भाजपा के राकेश शुक्ला, गोहद से कांग्रेस के केशव देसाई एवं दतिया जिले की सेवदा विधानसभा से भाजपा के प्रदीप अग्रवाल, भांडेर से कांग्रेस के फूलसिंह बरैया और दतिया से भी कांग्रेस के राजेन्द्र भारती विधायक हैं. लोकसभा में 3 चुनाव ही जीत सकी कांग्रेस भिंड लोकसभा सीट साल 1952 से अस्तित्व में आई थी. अब तक हुए 17 चुनावों में से कांग्रेस यहां 3 बार ही विजय हो सकी है, जबकि एक बार भारतीय जनसंघ, एक बार जनता पार्टी और एक निर्दलीय उम्मीदवार यशवंत सिंह कुशवाह यहां से सांसद रहे. शेष समय से यहां से बीजेपी के ही सांसद रहे. साल 1952 और 1962 में कांग्रेस के सूरज प्रसाद यहां से सांसद रहे. 1967 निर्दलीय यशवंत सिंह कुशवाह, 1971 में भारतीय जनसंघ से विजया राजे सिंधिया, 1977 में जनता पार्टी से रघुवीर सिंह मछंद, 1980 में कांग्रेस से कालीचरण शर्मा, 1984 में कांग्रेस से कृष्णपाल सिंह सांसद रहे. जबकि साल 1989 से यह सीट में भाजपा के खाते में ही जा रही है. 1989 से यहां क्रमश: नरसिंह राव दीक्षित, योगानंद सरस्वती, रामलखन सिंह, अशोक अर्गल, भागीरथ प्रसाद रहे, जबकि वर्तमान में संध्या राय यहां से सांसद हैं. यह है भिंड जिले के प्रभावी नेता भिंड जिले ने अनेक प्रभावी नेता दिए हैं, इन नेताओं में पूर्व विधायक डॉ. गोविंद सिंह जो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सहित प्रदेश सरकार के मंत्री पद को संभाल चुके हैं. वह मुखर नेता है और अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते हैं. इसी तरह कैप्टन जयपाल सिंह सिंह भिंड-दतिया लोकसभा सीट से सांसद रह चुके हैं. सेना में अपनी सेवाएं देने के बाद उन्होंने राजनीति में अपनी किस्मत आजमाई और सफल हुए. रामलखन सिंह बीजेपी के प्रमुख नेता रहे, भिंड लोकसभा सीट से सांसद भी रहे. चौधरी दिलीप सिंह चतुर्वेदी जो भिंड विधानसभा क्षेत्र में कई बार विधायक चुने गए, वह बीजेपी और कांग्रेस दोनों का दलों से प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. दलित नेता फूलसिंह बरैया भी भिंड से प्रभावी नेता माने जाते हैं. वर्तमान में विधायक हैं, दलितों के लिए आवाज उठाने वाले प्रमुख नेता माने जाते हैं. बहुजन समाज पार्टी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं, हालांकि अब कांग्रेस में है. ओपी भदौरिया मेहगांव विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं. केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोडक़र बीजेपी शामिल होने वाले प्रमुख नेता हैं. मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री पद का भी दायित्व संभाल चुके हैं. विधानसभा चुनाव में चतुर्थकोणीय मुकाबला भिंड जिले में संसदीय चुनाव में भले ही बीजेपी भारी रहती हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में यहां की सभी सीटों पर कशमकश भरा मुकाबला देखने को मिलता है. प्रदेश भर में भिंड जिला ही एक मात्र ऐसा जिला होता है जहां चतुर्थकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है. कुल मिलाकर यहां जितने भारी बीजेपी-कांग्रेस के उम्मीदवार होते हैं, उतने ही प्रभावी बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार भी दम दिखाते हैं. यहां चुनावों के दौरान किसकी जीत होगी और किस की हार होगी, यह कहना मुश्किल होता है.
एमपी का अनूठा जिला हैं भिंड, जहां बहती है 6 नदियां

– जिले में मौजूद हैं दो से तीन किले व अनेक एतिहासिक पर्यटन स्थल – ऐतिहासिक धरोहरों को देखने के लिए देश भर से पहुंचते हैं पर्यटकर मध्यप्रदेश का भिंड जिला अनूठा जिला है. दरअसल, यह पहला ऐसा जिला होगा, जहां एक-दो नहीं बल्कि 6-6 नदियां बहती है. यह नदियां भी छोटी-मोटी नहीं, बल्कि गंगा-यमुना की सहायक नदियां हैं. कल-कल बहती इन नदियों ने भिंड वासियों का जीवन खुशहाली से भर दिया है. भिंड शहर सहित आसपास जिले में अनेक ऐतिहासिक व दार्शनिक, पर्यटन स्थल है. भिंड में मौजूद किले आज भी राजा महाराजा काल की यादों को ताजा करते हैं. भिंड जिला प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पुरा है. यहां अनेक ऐतिहासिक-दर्शानिक स्थल आज भी मौजूद हैं, जो महाभारत काल से लेकर राजा महाराजाओं के शासन की याद ताजा करते हैं. भिंड जिले में पर्यटन के रूप में अटेर का किला, गोहद का किला, वनखंडेश्वर मंदिर, दंदरौआ हनुमान मंदिर, गौरी सरोवर, माता रेणुका मंदिर, बारसो के जैन मंदिर, नारद देव मंदिर, चंबल के बीहड़ सहित अनेक स्थल हैं. इन दर्शानिक, पर्यटन स्थलों को देखने के लिए देश भर से पर्यटकों यहां पहुंचते हैं. चंबल नदी किनारे स्थित है अटेर का किला इतिहास के मुताबिक भिंड जिले की अटेर तहसील में अटेर का किला स्थित है, जो चंबल नदी किनारे बना हुआ है. बताया जाता है कि इसका निर्माण 1664 ईस्वी में भदौरिया राजा बदन सिंह द्वार शुरू करवाया था. यह विशेष रूप से आकर्षक नजर आता है. यह किला अपनी अनूठी वास्तुकला के लिए भी विशेष पहचान रखता है. इस किले में खूनी दरवाजा, बदला सिंह का महल, हथिया पोर और रानी का बंगला जैसे कई आकर्शक हिस्से है. 17वीं शताब्दी की याद दिलाता गोहद का किला भिंड जिले में गोहद का किला स्थित है, जो 17वीं सदी का प्रमाण है. बताया जाता है कि इस किले का निर्माण 17वीं शताब्दी में जाट परिवार द्वारा कराया गया था. किला मजबूत दीवार और वास्तुकला के लिए जाना जाता है. किले के भीतर अनेक मंदिर मौजूद हैं. इस किले को देखने को लिए देश भर से बड़ी संख्या में यहां पर्यटक पहुंचते हैं और गाइडो के माध्यम से किले के इतिहास के बारे में जानकारी लेते हैं. यहां आने वाले लोग फोटो सेशन का आनंद लेना भी कभी नहीं भूलते हैं. सुकून महसूस कराता गौरी सरोवर भिंड शहर में प्राचीन सरोवर है, जिसे गौरी का सरोवर कहा जाता है. इस सरोवर के किनारे ही प्राचीन वनखंडेश्वर मंदिर एवं गणेश मंदिर स्थित है. शहर के लोग सुकून के पल बिताने के लिए गौरी सरोवर आते हैं और शांति महसूस करते हैं. सबसे खास बात यह है कि शहर के वृद्धजनों के लिए गौरी का सरोवर सबसे पसंदीदा स्थल है. शाम ढलते ही शाम 5 बजे के बाद यहां वृद्धजनों के आने जाने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है. वृद्धजनों घंटों यहां अपनी-अपनी टोलियों के साथ बैठक पुरानें दिनों की यादों को ताजा करते हैं. कभी चंबल के बीहड़ में आसरा लेते थे डाकू भिंड जिले की पुरानी पहचान डाकुओं से भी होती है. दरअसल, भिंड जिला चंबल नदी के किनारे बीहड़ों के लिए जाना जाता है. यहां के डाकू मध्यप्रदेश, राजस्थान सहित उत्तर प्रदेशों में वारदातों को अंजाम देने के बाद इन बीहड़ों में आसरा लिया करते थे. अब डाकू तो बचे नहीं, लेकिन यहां का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भूत है. हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के लिए यहां बड़ी संख्या में लोग आते हैं. कल-कल बहती नदियां भिंड जिले में सबसे खास बात यह है कि यहां करीब आधा दर्जन नदियां है, जो कल-कल बहती है. यहां की नदियां बड़ी नदी गंगा-यमुना की सहायक नदियां हैं, जो इन बड़ी नदियों में जाकर मिलती है. इन नदियों की वजह से भिंड जिला खुशहाली का प्रतीक है. इन नदियों में चंबल नदी, सिंध नदी, क्वारी (कुंवारी) नदी, पहुज नदी, आसन नदी और वेसली नदी शामिल हैं. इन नदियों की वजह से यहां औद्योगिक क्षेत्र फल फूल रहे हैं. इन औद्योगिक क्षेत्रों में भिंड जिले के अनेक युवाओं को रोजगार मिल रहा है तो किसानों को खेती करने में भी यह नदियां सहायक बनी हुई है
विधानसभा चुनाव में 1957 से 80 तक श्योपुर में जीत के लिए तरसी कांग्रेस

– संसदीय चुनाव में रहा बीजेपी का गढ़ – हाल ही हुए विजयपुर सीट पर उपचुनाव ने बटोरी खूब सुर्खियां मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले की श्योपुर-विजयपुर विधानसभा सीट की बड़ी ही रोचक कहानी है. इस सीट पर जातीय समीकरण बहुत तेजी से हावी है, यही कारण है कि अब तक कोई भी दल श्योपुर व विजयपुर को अपना गढ़ नहीं बना सका है. श्योपुर विधानसभा के शुरुआती दौर की बात करें तो यहां 1957 से 1980 तक कांग्रेस जीत के लिए तरस गई, हालांकि अब बीते दो चुनाव से जरुर यहां कांग्रेसी विधायक हैं. बता दें साल 1998 तक शिवपुरी जिले में श्योपुर तहसील समाहित थी, हालांकि 1998 में इसे स्वतंत्र जिले का दर्जा मिला. श्योपुर जिले में दो विधानसभा सीट आती है, जिसमें श्योपुर और विजयपुर शामिल हैं. हालांकि संसदीय सीट के मामले में अब भी यह दोनेां विधानसभा मुरैना संसदीय सीट में समाहित है. श्योपुर जिले की वर्तमान स्थिति की बात करें तो यह जिला 6606 स्क्वे. किमी. क्षेत्र में फैला है. यहां की कुल आबादी 6 लाख 87 हजार 861 है, जिनमें पुरुष 3 लाख 61 हजार 784 और महिला 3 लाख 26 हजार 77 हैं. श्योपुर जिले में कुल गांव 585 हैं. यहां तीन नगरीय निकाय आते हैं. श्योपुर विधानसभा पर एक नजर श्योपुर विधानसभा में पहला चुनाव साल 1957 में हुआ था. पहले चुनाव में हिंदू महासभा से रघुनाथ विधायक बने थे, जबकि 1962 में हिंदू महासभा से रामस्वरूप, 1967 में भारतीय जनसंघ से एस तिवारी, 1972 में भारतीय जनता संघ से लोकेंद्र सिंह, 1977 में जनता पार्टी से गुलाब सिंह, 1980 में कांग्रेस (आई) से बद्रीप्रसाद, 1985 में कांग्रेस से सत्यभानु चौहान, 1990 में भाजपा से गुलाब सिंह, 1993 में भाजपा से रामाशंकर भारद्वाज, 1998 में बृजराज सिंह निर्दलीय, 2003 में भाजपा से दुर्गालाल विजय, 2008 में कांग्रेस से बृजराज सिंह, 2013 में भाजपा से दुर्गालाल विजय, 2018 में कांग्रेस से बाबू जंडेल एवं 2023 में भी कांग्रेस के बाबू जंडेल ने यहां से जीत हासिल की थी. मुरैना संसदीय सीट में समाहित है श्योपुर श्योपुर जिले की दोनों सीटें श्योपुर और विजयपुर की संसदीय सीट मुरैना लगती है. संसदीय चुनाव में दोनों ही सीटों के मतदाता मुरैना संसदीय सीट के लिए मतदान करते हैं. साल 1996 से यह संसदीय सीट भाजपा गढ़ गई. 1996 से 2004 तक अशोक अर्गल सांसद चुने गए, 2009 में बीजेपी से नरेन्द्र सिंह तोमर, 2014 में अटल बिहार वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा, 2019 में नरेन्द्र सिंह तोमर और वर्तमान में शिवमंगल सिंह तोमर यहां से बीजेपी सांसद हैं. श्योपुर-विजयपुर से यह जनप्रतिनिधि विशेष श्योपुर-विजयपुर क्षेत्र से अनेक जनप्रतिनिधि शामिल हैं. जिनमें बाबू जंडेल जो वर्तमान में श्योपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं. पूर्व विधायक दुर्गालाल विजय भी बड़ा नाम है. बृजराज सिंह कांग्रेस से पूर्व में विधायक रह चुके हैं. पूर्व विधायक रामाशंकर भारद्वाज व गुलाब सिंह शामिल हैं. इसी तरह विजयपुर विधानसभा से मुकेश मल्होत्रा, जिन्होंने हाल ही में हुए उपचुनाव में दिग्गज नेता रामनिवास रावत को पराजित किया है. वहीं विजयपुर सीट से रामनिवास रावत भी कद्दावर नेता हैं, जो पहले कांग्रेस से थे, जबकि वर्तमान में बीजेपी नेता हंै. सीताराम आदिवासी भाजपा से पूर्व विधायक रह चुके हैं. बाबूलाल मेवाड़ा भी पूर्व विधायक बीजेपी एवं जगमोहन सिंह जो निर्दलीय और भारतीय जनसंघ से विधायक रह चुके हैं. उपचुनाव ने खूब बटोरी सुर्खियों बीते 7-8 महीने पहले प्रदेश की दो प्रमुख विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए थे, जिनमें पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान द्वारा रिक्त की गई बुदनी विधानसभा और विधायक रामनिवास रावत द्वारा बीजेपी में आस्था जता देने की वजह से विजयपुर सीट शामिल थी. दोनों ही सीट जमकर चर्चाओं में थी. बुदनी सीट शिवराज सिंह चौहान की वजह से जबकि, विजयपुर सीट रामनिवास रावत की वजह. दरअसल, रामनिवास रावत ने विजयपुर से विधायक रहते हुए बीजेपी में अपनी आस्था जता दी थी, बीजेपी ने उन्हें वन मंत्री जैसा प्रमुख दायित्व दे दिया थी, इसके बाद यहां उपचुनाव हुए. जिसमें भारी कशमकश भरे मुकाबले में पूर्व मंत्री रामनिवास रावत को हार का सामना करना पड़ गया और मुकेश मल्होत्रा चुनाव जीत गए, जो वर्तमान में कांग्रेस से विधायक हैं.
कूनो नेशनल पार्क ने पूरे देश में दी श्योपुर को पहचान

– भारत में विलुप्त हुए चीतों को 70 साल बाद फिर से कुनो नेशनल पार्क में बसाया – राजा-महाराजा काल की अनुभूति कराते हैं किले – प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है श्योपुर जिला प्राकृतिक हरिभरी वादियों से घिरे श्योपुर जिले में अनेक ऐतिहासिक एवं पर्यटन स्थल मौजूद हैं. वर्तमान में सबसे बड़ी पहचान श्योपुर का कुनो नेशनल पार्क बन गया है, जिसमें भारत से विलुप्त हुए चीतों को 70 साल बाद फिर से बसाया गया है. इसके अलावा श्योपुर जिले में मौजूद किले राजा-महाराजा काल की अनुभूति कराते हैं. चंबल घडिय़ाल सेंचुरी भी देश भर के पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है. श्योपुर जिले में पर्यटन के रूप में कूनो राष्ट्रीय उद्यान, त्रिवेणी संगम, डोब कुण्ड, मानपुरा का किला, बड़ोदा किला, सहरिया संग्रहालय, चंबल घडिय़ाल सेंचुरी, धनायचा सहित श्योपुर फोर्ट शामिल हैं. 11वीं से 15वीं शताब्दी के यह ऐतिहासिक प्रमाण आज भी मौजूद हैं, जिन्हें देखने के लिए देश भर से पर्यटक श्योपुर पहुंचते हैं, जबकि कूनो नेशनल पार्क में चीतों को बसाने के बाद से पर्यटकों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है. यहां आने वाले देशी-विदेशी पर्यटक गाइडों की मदद से पुरा संपदा की जानकारी अर्जित करते हैं तो फोटोग्राफी का भी आनंद लेते हैं. यह ऐतिहासिक धरोहरें श्योपुर जिले को पूरे देश में पहचान दिला रही है. कूनो नेशनल पार्क ने देश भर में दिलाई पहचान वर्तमान में कूनो जिले की सबसे बड़ी पहचान कूनो नेशनल पार्क हो गया है. दरअसल, कूनो नेशनल पार्क में साल 1952 से विुलप्त हुए चीतों को फिर से बसाया गया है. साल 2022 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन के अवसर पर 17 सितंबर को नामीबिया से लाए गए 8 चीतों को यहां स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रिलीज किया गया है. इन चीतों में 5 मादा और तीन नर चीते शामिल हैं. भारत में यह पहली बार हुआ जब चीतों को एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप स्थानांतरित किया गया. इसके बाद फरवरी 2023 में अफ्रीका से 12 चीते लगाए गए. इस तरह कूनो नेशनल पार्क में चीतों की संख्या में 20 हो गई थी, लेकिन उतार-चढ़ाव के चीते एवं माहौल में ढल नहीं पाने की वजह से चीतों की मौत भी हुई. हालांकि अब धीरे-धीरे चीतों के कुनबे में इजाफा होने लगा है, अब चीतों की संख्या 29 हो गई है. इन चीतों को देखने के लिए देश भर से बड़ी संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते हैं. कूनो नेशनल पार्क की वजह से श्योपुर के व्यापार में भी तेजी से वृद्धि हुई है. सीप-कलवाल के संगम पर स्थित है किला सीप व कलवाल नदी के संगम पर श्योपुर किला स्थित है. यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक है, जो 15वीं सदी के राजा महाराजाओं के शासनकाल की यादों को ताजा करता है. मान्यताएं हैं कि इस किले का निर्माण 1537 ईस्वी में हुआ था, जबकि कुछ अन्य तत्यों में यह 11वीं शताब्दी का भी बताया जाता है. बहरहाल इस किले पर अकबर से लेकर सिंघिया शासकों का आधिपत्य रहा है. किले में शीश महल, हवा महल, शंकर महल सहित अनेक दार्शनिक स्थल है. बड़ौदा व मानपुरा किला श्यामपुर में दो ओर अन्य किले हैं, जिनमें बड़ौदा किला और मानपुरा किला हैं. इतिहासकारों के अनुसार बड़ौदा किले का निर्माण खींची राजाओं द्वारा कराया गया था हालांकि बाद में राजा इंद्रा सिंह गौड़ ने इसे जीतकर श्योपुर रियासत में शामिल कर लिया था. यह किला भी श्योपुर में ऐतिहासिक धरोहर है. इधर मानपुरा किले की बात करें तो यह श्योपुर से करीब 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जिसमें राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था, जो बाद में श्योपुर के गौड़ राजाओं के अधीन आ गया था. यहां होता तीन नदियों का मिलन श्योपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूरी पर रामेश्वर त्रिवेणी संगम स्थल हैं. यहां तीन नदियों का संगम होता है, जिनमें चंबल, सीप और बनास नदिया हैं, जिनका यहां मिलन होता है, इसलिए इसे रामेश्वर त्रिवेणी संगम कहा जाता है. इस स्थल को मीणा जनजाति का प्रयागराज भी कहा जाता है. यहां प्राचीन शिवलिंग स्थापित हैं. कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहां विशाल मेला लगता है, जिसमें मध्यप्रदेश सहित राजस्थान से भी बड़ी संख्या में आते हैं.
श्योपुर में आज भी मौजूद हैं मौर्य – गुप्त और परमार राजवंश की निशानियां

– 1537 ई. में हुआ था श्योपुर किले का निर्माण, राजा इंद्रसिंह ने की थी स्थापना मध्यप्रदेश का श्योपुर जिला अपने अंदर अनेक विरासतें संजोए हुए हैं. इतिहासकारों के अनुसार श्योपुर जिला मुख्यालय सीप नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है. इतिहास के मुताबिक श्योपुर की धरती मौर्य, गुप्त और परमार जैसे शक्तिशाली राजवंश के अधीन रहा. इन शासकों द्वारा यहां अनेक धार्मिक-आकर्षक कलाओं से परिपूर्ण अनेक निर्माण कराए, जिनके प्रमाण आज भी देखने को मिलते हैं. श्योपुर में अनेक ऐतिहासिक धरोहरें हैं, जिन्हें देखने के लिए मध्यप्रदेश सहित देश भर के अनेक राज्यों से पर्यटक आते हैं. बाहरी पर्यटकों की वजह से श्योपुर की जनता को आर्थिक व्यापार भी मिलता है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति दिन व दिन सुदृढ़ होती जा रही है. हालांकि मध्यप्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग के मुताबिक 15वीं सदी में जयपुर राजघराने के सामंत गौड़ राजपूत समाज का आधिपत्य रहा. राजा इंद्रसिंह द्वारा यहां 15वीं सदी (1537) में श्योपुर किले का निर्माण कराया था. गौड़ राजपूत राजा भगवान शिव के उपासक थे, जिसकी वजह से यहां अनेक शिव मंदिरों का निर्माण भी कराया गया था. इतिहासकारों के अनुसार श्योपुर की धरती मुगल साम्राज्य, मराठा साम्राज्य के भी आधीन रही. मुगल शासन और मराठा शासनकाल के कुछ ऐतिहासिक अवशेष भी यहां मिलते हैं. ग्वालियर रियासत का रहा हिस्सा बताया जाता है कि 19वीं शताब्दी में श्योपुर की धरती ग्वालियर रियासत का हिस्सा बन गई, जिस पर सिंधिया वंश का शासन था. सिंधिया शासकों ने श्योपुर के विकास में अनेक महत्वपूर्ण योगदान दिए. भारत की आजादी के बाद 1947 मं श्योपुर तत्कालीन मध्य भारत का हिस्सा बना, जबकि साल 1956 में राज्यो के गठन के बाद यह मध्यप्रदेश में शामिल हुए. यही कारण है कि वर्तमान राजनीति में भी श्योपुर जिले में ग्वालियर राजघराने का अच्छा खासा प्रभाव हैं. कूनो ने दी विशेष पहचान स्वतंत्र जिले के बाद श्योपुर को पूरे देश में सबसे बड़ी पहचान कूनो नेशनल पार्क के रूप में मिली, जहां 70 साल बाद फिर से चीतों को बसाया गया है. अब से तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन के मौके पर कूनो नेशनल पार्क में नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से लाए गए 20 चीतों को छोड़ा गया. यह चीते स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रिलीज किए गए. दूसरी खेप भी चीते लाए गए और यहां छोड़े गए. शुरुआती दौर में काफी उतार चढ़ाव के बीच कई यहां के वातावरण में नहीं ढल पाने की वजह से अनेक चीतों की मौत भी हुई, लेकिन अब धीरे-धीरे इनके कुनबे में इजाफा होता जा रहा है. इन चीतों को देखने के लिए अब देश-प्रदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक कूनो नेशनल पार्क पहुंचते हैं. कूनो नेशनल पार्क की वजह से श्योपुर की आर्थिक स्थिति में भी निरंतर विकास हो रहा है. 1998 में मिला जिले का दर्जा बताया जाता है कि साल 1998 में श्योपुर को शिवपुरी जिले से अलग कर स्वतंत्रता जिले का दर्जा दिया गया. श्योपुर जिला अपनी पुरानी विरासत, प्राकृतिक सौंदर्य के जाना जाता है. श्योपुर जिले की वर्तमान स्थिति की बात करें तो यह जिला 6606 स्क्वे. किमी. क्षेत्र में फैला है. यहां की कुल आबादी 6 लाख 87 हजार 861 है, जिनमें पुरुष 3 लाख 61 हजार 784 और महिला 3 लाख 26 हजार 77 हैं. श्योपुर जिले में कुल गांव 585 हैं. यहां तीन नगरीय निकाय, वहीं 225 ग्राम पंचायते हैं. जिला सरकारी अस्पताल एक हैं, मुख्य डाक विभाग, 4 बैंके, कॉलेज/विश्वविद्यालय 2, नगर पालिका तीन और विद्यालय 2 हैं.
किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं मुरैना की गजक

– दुनिया भर के लोगों को बनाया स्वाद का दिवाना – अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दुबई, इंग्लैंड जैसे देशें में होता है निर्यात – सैनिक से डाकू बने पान सिंह तोमर ने भी मुरैना को दी पहचान मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित मुरैना शहर किसी पहचान का मोहताज नहीं है. इस शहर ने कोई बालीवुड सेलिब्रिटी या राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जैसे बड़े जनप्रतिनिधि तो नहीं दिए, लेकिन मुरैना की गजक जरुर किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं है. मुरैना की गजक ने देश विदेश के लोगों को अपने स्वाद का दिवाना बना रखा है. मुरैना में बनने वाली गजक सात समंदर पार अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, दुबई जैसे बड़े देशों तक निर्यात की जाती है. इसी तरह डाकू पान सिंह तोमर जैसे व्यक्तित्व ने भी मुरैना को विशेष पहचान दी है. अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहजे हुए मुरैना शहर प्रदेश के लोकप्रिय शहरों में से एक हैं. मुरैना शहर सहित आसपास 8वीं से लेकर 14वीं सदी तक की अनेक विरासतें आज भी मौजूद हैं. इस शहर ने देश को अनेक व्यक्तित्व दिए हैं. जिनमें एथलेटिक्स में पान सिंह तोमर, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी में रामप्रसाद बिस्मिल, कला अभिनय और माडलिंग में पलाशिका, साहित्य इंदिरा इंदु एवं राजनीति में नरेन्द्र सिंह तोमर सहित अनेक दिग्गज जनप्रतिनिधि शामिल हैं. इन सबमें महत्वपूर्ण हैं मुरैना की गजक. स्वाद से भरी गजक की वजह से मुरैना शहर की पहचान भारत में ही नहीं, अपितु विश्व भर में जानी जाती है. मुरैना की गजक के लोग स्वाद के दिवाने हैं. मुरैना में बनने वाली गजक दूर देशों में भी भेजी जाती है. कूटा-पीटी पद्धति से बनती है गजक देश-विदेश में मुरैना को पहचान दिलाने वाली स्वाद से भरी गजक कूटा पीटी पद्धति से बदती है. यह अद्भुत स्वाद से भरी खस्ता रहती है, जो मुंह में रखते ही घुल जाती है. गजक में तिल और गुड़ का मिश्रण रहता है, जो लोगों को अपना स्वाद का दिवाना बनाता है. यह स्वाद के साथ ही शरीर के लिए भी पौष्टिक होती है, इसके सेवन से शरीर को प्रोटीन, कैल्शियम और आयरन जैसे जरुरी तत्वों की पूर्ति होती है. शोक में नहीं, मजबूरी में बने डाकू मुरैना शहर के पान सिंह तोमर किसी पहचान के मोहताज नहीं है. पान सिंह तोमर की असल कहानी यह है कि वह शोक से नहीं, बल्कि मजबूरियों की वजह से डाकू बने हैं. बताया जाता है कि पान सिंह तोमर भारतीय सेना में सैनिक थे और वह एक साधारण एथलीट भी थे, जिन्होंने स्टीपलचेज में राष्ट्रीय रिकार्ड बनाते हुए राष्ट्रीय खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर मुरैना का नाम रोशन किया. हालांकि बादि में पारिवारिक विवादों के चलते वह डाकू बनने के लिए मजबूर हुए. पान सिंह तोमर सिने जगत में भी छाए. उनके जीवन पर फिल्म डायरेक्टर तिग्मांशु धूनिया ने पान सिंह तोमर नामक सफल फिल्म बनाई, जिसने बालीवुड में खूब धूम मचाई. इस फिल्म में पान सिंह तोमर का रोल अभिनेता इरफान खान द्वारा निभाया गया था. फिल्म में बताया गया कि भारतीय सेना का एक सैनिक कैसे दस्यु बना. स्वतंत्रता संग्राम में भी मुरैना का सहयोग भारती को आजादी दिलाने (स्वतंत्रता संग्राम) में मुरैना ने भी अपना सहयोग दिया है. इस शहर ने महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल जैसे स्वतंत्रता संग्राम दिए हैं. रामप्रसाद बिस्मिल हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोएिशन के प्रमुख सदस्यों में से एक थे वह काकोरी कांड जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं से भी जुड़े. वह कवि भी रहे, साहित्य में उन्हें बिस्मिल के रूप में उपनाम मिला. उन्होंने इसी नाम से अनेकों कविताएं लिखी. मुरैना में आज भी उनका नाम ससम्मान लिया जाता है. परदादा के पदचिन्हों पर चली इंदिरा साहित्य जगत में ही दूसरा नाम रहा है इंदिरा (इंदु) का, जो अपने परदादा नाथूराम शंकर शर्मा के पदचिन्हों पर चलकर एक से बढक़र एक कविताएं लिखी. उनका परिवार साहित्य से जुड़ा रहा. परदादा नाथूराम शर्मा के बाद उनके दादा हरिशंकर शर्मा एवं पिता कृपा शंकर शर्मा भी जाने माने हिन्दी कवि थे. राजनीति में भी दिए अनेक दिग्गज मुरैना की धरती ने भारत की राजनीति में भी अनेक दिग्गज दिए हैं. इन दिग्गज नेताओं ने केन्द्र व मध्यप्रदेश सरकार के माध्यम से मुरैना, प्रदेश व देश की सेवा की है. इन्हीं में प्रमुख नाम है वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का. नरेन्द्र सिंह तोमर मुरैना से सांसद रहे और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार में कृषि मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद आसीन हुए. उम्र के इस पड़ाव पर भी लोकप्रिय हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कि हाल ही में ही 2023 में हुए विधानसभा चुनाव में मुरैना की दिमनी विधानसभा सीट से विधायक चुने गए और अब मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं.
तीन दशकों से बीजेपी का गढ़ बना हुआ है मुरैना

– साल 1991 से संसदीय सीट पर जीत को तरस रही कांग्रेस – विधानसभा चुनाव में होता है त्रिकोणीय मुकाबला मध्यप्रदेश का मुरैना जिला राजनीतिक लिहाज से वर्चस्व वाला जिला है. इस जिले में जातीय समीकरण जीत-हार का फैसला करते हैं. हालांकि संसदीय चुनाव के मामले में मुरैना लोकसभा सीट साल 1996 से बीजेपी का गढ़ बनी हुई है, जबकि 1991 के बाद से कांग्रेस यहां जीत का स्वाद नहीं चख सकी है. हालांकि विधानसभा चुनावों में यहां त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है. गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में 230 विधानसभा सीटें हैं, ज्यादातर सीटों पर बीजेपी-कांग्रेस के बीच आमने सामने का ही मुकाबला होता है. एसी कम ही सीटें हैं, जहां त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है, उनमें से प्रदेश का मुरैना जिला प्रमुख है. विधानसभा चुनाव के मामले में मुरैना जिले में बीजेपी-कांग्रेस और बसपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता रहा है. कई बार इस जिले से बसपा और सपा उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. गत 2023 के विधानसभा चुनाव में भी यहां त्रिकोणीय मुकाबले के बीच 3 सीटें बीजेपी तो 3 सीटें कांग्रेस के खाते में गई है. इनमें से मुरैना से कांग्रेस के दिनेश गुर्जर, सबलगढ़ से भाजपा की सरला रावत, जौरा से कांग्रेस के पंकज उपाध्याय, सुमावली से भाजपा के एदल सिंह कंसाना, दिमनी से भाजपा के नरेन्द्र सिंह तोमर और अम्बाह से कांग्रेस के देवेंद्र रामनारायण ने जीत दर्ज की थी. छह विधानसभा सीटों में बटा है मुरैना मुरैना जिले में छह विधानसभा सीटे हैं, जिनमें जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह और सबलगढ़ विधानसभा शामिल हैं. लोकसभा सीट पर भले ही यह भाजपा का गढ़ माना जाता हो, लेकिन विधानसभा क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जिले की सभी छह विधानसभा सीटों पर जातीय समीकरण है. मुरैना में जातीय समीकरण की बात करें तो यहां बघेल, गुर्जर, राजपूत और दलित समुदाय (खासकर जाटव) समाज को विशेष निर्णायक वोटबैंक माना जाता है. जिले की सभी अलग-अलग विधानसभा सीटों पर अलग-अलग जाति का दबदबा रहता है, जो निर्णायक माना जाता है। यह रहा संसदीय सीट का इतिहास मुरैना लोकसभा सीट 1952 में अस्तित्व में आई थी. 1952-57 में कांग्रेस से राधा चरण शर्मा इस सीट से सांसद रहे, जबकि 1962 में कांग्रेस से सूरज प्रसाद, 1967 में निर्दलीय आत्मादास रहे. 1971 में मुरैना संसदीय सीट पर भारतीय जनसंघ का उदय हुआ और हुकूम चंद्र कछवाई सांसद बने, 1977 में जनता पार्टी से छविराम अग्रवाल, 1980 में कांग्रेस (आई) से बाबूलाल सोलंकी, 1984 में कांग्रेस से कम्मोदीलाल जाटव, 1989 में भजापा से छविराम अग्रवाल, 1991 में कांग्रेस से बारेलाल जाटव, जबकि साल 1996 से यह सीट भाजपा गढ़ गई. 1996 से 2004 तक अशोक अर्गल सांसद चुने गए, 2009 में बीजेपी से नरेन्द्र सिंह तोमर, 2014 में अटल बिहार वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा, 2019 में नरेन्द्र सिंह तोमर और वर्तमान में शिवमंगल सिंह तोमर यहां से बीजेपी सांसद हैं. संसदीय सीट पर 3 दशक से भाजपा का गढ़ मुरैना सीट पर पहली बाहर 1952 में चुनाव हुए थे, शुरुआत में यहां कांग्रेस का दबदबा रहा. पहले ही चुनाव में कांग्रेस के राधाचरण शर्मा ने यहां से जीत हासिल की थी. हालांकि साल 1971 से यह सीट पर जनसंघ/भाजपा का उदय हो गया था. बीते 3 दशक से मुरैना संसदीय सीट बीजेपी का गढ़ बन गई है. साल 1996 से 2009 तक यहां से बीजेपी से अशोक अर्गल सांसद चुने गए, जबकि 2024 के लोकसभा चुनाव में शिवमंगल सिंह तोमर बीजेपी से यहां चुनाव जीते, वह 5 लाख 15 हजार 477 वोटें से जीते, उन्होंने निकटतम प्रतिद्वंदी कांग्रेस के सत्यपाल सिंह सिकरवार को हराया, जबकि बसपा यहां तीसरे स्थान पर रही. केन्द्र व राज्य को दिए अनेक मंत्री मुरैना जिले से अनेक प्रभावी नेता आते हैं. मुरैना की जनता ने यहां के जनप्रतिनिधियों को केन्द्र व राज्य सरकार में शामिल होने का मौका दिया है. प्रमुख नेताओं की बात करें तो वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर मुरैना से सांसद रह चुके हैं, जबकि वह केन्द्र में कृषि मंत्री का दायित्व भी संभाल चुके हैं. इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा मुरैना से सांसद व विधायक रह चुके हैं. वह प्रदेश सरकार में मंत्री पद संभाल चुके हैं. इसी तरह रामनिवास रावत मुरैना की राजनीति में प्रमुख कांग्रेस नेता रहे, हालांकि वर्तमान में वह भाजपा में हैं. बीते दिनों हुए उपचुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. डॉ. गोविंद सिंह कांग्रेस से बड़े नेता है, वह विधानसभा में नेताप्रतिपक्ष रह चुके हैं. रघुराज कंसाना भी बीजेपी से विधायक रह चुके हैं.
ऐतिहासिक धरोहरों का गढ़ है मुरैना

– चौसठ योगिनी मंदिर के डिजाइन अनुरूप बना है पुराना संसद भवन – मुरैना में आज भी मौजूद हैं 8वीं सदी के प्रमाण – विलुप्तप्राय: घडिय़ालों का अस्तित्व बचाए हुए हैं चंबल नदी मध्यप्रदेश का प्रमुख जिला मुरैना ऐतिहासिक धरोहरों का गढ़ माना जाता है. मुरैना शहर में आज भी 8वीं से लेकर 14वीं सदी तक के प्रमाण के रूप में मंदिर किले सहित अनेक ऐतिहासिक धरोहरें मौजूद हैं. सबसे खास बात यह है कि मुरैना में स्थित चौसठ योगिनी मंदिर की डिजाइन के अनुरूप ही भारत का पुराना संसद भवन (संविधान भवन) का निर्माण गोलाकार आकार में किया गया था. मुरैना की ऐतिहासिक धरोहरों को देखने के लिए देश-प्रदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं. मुरैना शहर सहित आसपास 8वीं सदी से लेकर 14वीं सदी के अनेक किले व मंदिर मौजूद हैं. इनमें विशेष रूप से बटेश्वर मंदिर समूह, चौसठ योगिनी मंदिर, सबलगढ़ का किला, ककनमठ मंदिर, नेशनल चंबल अभ्यारण, पहाडग़ढ़ का किला, कुंतलपुर सूर्य मंदिर, शनिचरा धाम, नूराबाद पुल और सराय, आलोपी शंकर मंदिर शामिल हैं. इसके अलावा नदियों की बात करें तो चंबल नदी, आसन नदी और कदन नदी शामिल हैं. मुरैना में मौजूद यह ऐतिहासिक धराहरें बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. यहां की चंबल नदी विलुप्त प्राय: हो चुके घडिय़ाल (मगरमच्छों) का अस्तित्व बचाए हुए हैं. इसके अलावा गंगा डाल्फिन भी यहां मौजूद हैं. चौसठ योगिनी मंदिर से प्रेरित है संसद भवन मुरैना शहर से करीब 25-30 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम मितावली में चौसठ योगिनी मंदिर स्थित है. इतिहासकारों के अनुसार यह मंदिर 10वीं-11वीं शताब्दी ईस्वी का है. इस मंदिर का निर्माण कच्छपघाट वंश के राजा देवपाल ने कराया था. इस मंदिर में 100 शिवलिंग हैं. इस मंदिर का निर्माण गोलाकार आकार में है. मंदिर में 64 कक्ष है, जिनमें सभी कक्ष में माता की प्रतिमा विराजमान है. खास बात यह है कि इस मंदिर की डिजाइन देश के पुराने संसद भवन (अब संविधान भवन) से मिलती जुलती है. कहा यही जाता है कि इस मंदिर के डिजाइन से प्रेरित होकर ही संसद भवन का निर्माण कराया गया था. मंदिर को देखने आने वाले पर्यटक पहली ही नजर में संसद भवन की डिजाइन से मिलते जुलते मंदिर की गोलाकार डिजाइन को देख अचंभित हो जाते हैं. डाकुओं के सहयोग से मूल रूप में आया था मंदिर मुरैना शहर से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर चंबल घाटी के बीहड़ों में पड़ावली गांव के पास बटेश्वर मंदिर समूह है. बताया जाता है कि यह मंदिर 200 बलुआ विशाल पत्थरों का समूह था. इस मंदिर का निर्माण 8वीं-10वीं सदी में गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के शासनकाल के दौरान हुआ था. इतिहास के अनुसार भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा और संभवत: आक्रमणों के कारण यह मंदिर खण्डह में तब्दील हो गया था. इस खंडहर में डकैत छिपा करते थे. साल 2005 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा पूर्व डाकुओं के सहयोग से ही मंदिर के गिरे हुए पत्थरों को जोडक़र फिर से पुराने स्वरूप में ला दिया है. प्रतिदिन मंदिर को देखने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक पहुंचते हैं व फोटोग्राफी भी करते हैं. संघर्ष का गवाह है सबलगढ़ किला मुरैना शहर से करीब 25-30 किलोमीटर की दूरी पर चंबल नदी के पास सबलगढ़ किला है. इस किले के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि 18वीं शताब्दी में गुर्जर सरदार सबला द्वारा इस किले का निर्माण शुरू कराया था, हालांकि यह किला राजा गोपाल सिंह के शासन काल में पूर्ण रूप से आकार ले सका था. इस किले की मजबूत दीवारें, मजबूत रक्षा प्रणाली आज भी इसकी मजबूती का प्रत्यक्ष प्रमाण है. बताया जाता है कि यह किला मराठों (होल्कर-सिंधिया), राजपूत और जाट शासकों के बीच हुई संघर्ष का गवाह है. यहां बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं. नेशनल चंबल अभ्यारण चंबल नदी के किनारे ही नेशनल चंबल अभ्यारण है. यह अभ्यारण देश-विदेश के पर्यटकों के लिए एक विशेष केन्द्र है. इस अभ्यारण में अनेक लुप्तप्राय प्रजापति के वन्यजीव मौजूद हैं. खासकर यहां घडिय़ाल (लुप्तप्राय मगरमच्छ) प्रजाति सहित गंगा डॉल्फिन बड़ी संख्या में मौजूद हैं. इसके अलावा यहां कछुए, 300 से अधिक प्रवासी व निवासी पक्षी सहित मगरमच्छ और अन्य जलीय जीव भी पाए जाते हैं. जिन्हें देखने के लिए यहां बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं. यहां आने वाले पर्यटक नौका विहार का भी आनंद लेते हैं. उल्कापिंड के रूप में पूजे जाते शनि महाराज मुरैना शहर के पास ही ऐति गांव में शनिचरा धाम हैं. यह मंदिर भगवान शनिदेव को समर्पित है. यह मंदिर भारत में मौजूद शनि मंदिर में से एक प्रमुख मंदिर है. यहां शनिदेव की मूर्ति उल्कापिंड (आकाशीय पत्थर) के रूप में विराजित हैं. जिनकी श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना की जाती है. शनिवार के दिन यहां हजारों की तादाद में श्रद्धालु दर्शनों के लिए पहुंचते हैं.